Sunday, August 29, 2010

कुछ बातें पढने के बारे में


जब हमने यह ब्‍लॉग बनाया तो जेहन में एक छोटा सा ख्‍याल था कि समय निकालकर जो कुछ भी थोडा-बहुत पढा जाता है, उसे अपनी सामर्थ्‍य के अनुसार साझा करना एक अच्‍छा ख्‍याल साबित होगा। वही हम कर भी रहे हैं। माननीय सदस्‍यगण भी अपनी सुविधा और रुचि के अनुसार जब लिखना पसंद करेंगे लिखेंगे। क्‍योंकि हमारा जोर इस बात पर ज्‍यादा है बल्कि यह कहना चाहिए कि इस बात पर ही है कि हम क्‍या कर रहे हैं, बजाय इसके कि दूसरे लोग क्‍या नहीं कर रहे हैं :-)

पुस्‍तकें हमें जीवन को समाज को समझने में उन्‍हें गहराई से देखने में बहुत मददगार होती हैं। साहित्‍य को समाज का दर्पण कहा गया है लेकिन मेरी समझ है कि साहित्‍य समाज को देखने का सूक्ष्‍मदर्शी है, सुनने का ध्‍वनिवर्धक यंत्र है। इसे पढते हुए वह दिखाई देता है जो हमें पहले नहीं दिखा था वह आवाजें सुनाई दे जाती हैं, जो हमारे आसपास होती हुई भी हमें पहले कभी नहीं सुनाई दी थीं।

Friday, August 20, 2010

कामरेड का कोट

दोस्तों, अभी पिछले दिनों वामपंथ (विचलन) पर "हँस" के फ़रवरी, १९८९ अंक में प्रकाशित और "पाखी" के अगस्त २०१० अंक में पुनर्प्रकाशित सृंजय की बहुचर्चित कहानी - "कामरेड का कोट" पढ़ी. इस बार इसी पर बात करता हूँ...

"कामरेड का कोट" आज़ाद भारत में वामपंथी धारा की बौद्धिकता और जमीनी सच्चाइयों के बरक्स उसके नाकाम होने के कारणों की पड़ताल का खरा विश्लेषण प्रतुत करती है. मुख्य पात्र कमलाकांत को हमारे समाज में व्यवस्था विद्रोह की जरूरत और अनिवार्यता का मशाल उठाने वाले के रूप में पेश किया गया है. जब हालत मौखिक प्रतिरोध से आगे, "ग्राउंड जीरो" पर सक्रियता का, अपने अस्तित्व और 'सर्वाइवल"(सुरक्षा) का हो जाता है, तब मात्र बौद्धिक विमर्श से काम नहीं चल सकता. क्रांति कोई रोमांटिसिज्म नहीं है और ना सिर्फ़ खा-पीकर अघाये मुखों से प्रवचन देने को जुटे शब्दवीरों की जुगाली का मंच और अकर्मण्य चापलूसों की भीड़ जुटाने का प्रयोजन. दुखद है कि, यह प्रवृति ना सिर्फ़ वामपंथ में बल्कि इधर प्राय: सभी धाराओं में पनप गयी है.

Sunday, August 15, 2010

मेरे सपनों का भारत

किसी भी इन्सान को जानने का सबसे आसान तरीका है उसकी कही, उसकी लिखी बातों को जानना, पढना और समझना। विशेष रूप से जब हम किसी ऐसे महापुरूष के बारे में जानना चाहते हों जिनको गुजरे, ज़माने बीत चुके हों तो उनके विचारों को जानने का सबसे आसान और उचित तरीका है उनके सार्वजनिक भाषणों का संकलन। यही सब सोचकर शायद "मेरे सपनों का भारत" लिखने का नेक काम किया गया होगा जो न सिर्फ़ बापू के विचारों से हमें अवगत कराता है बल्कि सफ़लतापूर्वक एक जीवन आदर्श पेश करता है।

Monday, August 9, 2010

फटीचर और ठाठदार दिखने के बीच चालीस पैसे का फर्क है

मकान (उपन्‍यास)
पहला संस्‍करण - 1976 
सातवीं आवृत्ति - 2004 

प्रकाशक 
राधाकृष्‍ण प्रकाशन प्राइवेट लिमिटेड, 
जी - 17, जगतपुरी, दिल्‍ली - 110051
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यह वाक्‍य है, श्रीलाल शुक्‍ल के उपन्‍यास 'मकान' का ।  कुछ ऐसे लेखक होते हैं जिन्‍हें पढते समय आप कभी बोर नहीं होते ।  उनका अंदाज ही ऐसा होता है कि आप चाहे उनकी प्रारंभिक रचनाऍं पढें या लोकप्रिय होने लीजेन्‍ड बनने के बाद की, कभी बोरियत महसूस नहीं होती । श्रीलाल शुक्‍ल ऐसे ही लेखक हैं । इनकी मास्‍टर पीस 'रागदरबारी'  से तो आप परिचित होंगे ही ।

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