Tuesday, October 9, 2012

ये है अक्षरौटी पत्रिका । ये है लिंक। देखिये और अपने सुझाव दीजिये। ये पत्रिका बिलकुल अव्यावसायिक है। सिर्फ इन्टरनेट पर संचालित है अभी। पहला अंक 2007 में हार्ड कॉपी में आया था । उसके बाद बंद हो गई थी। हमने इसे पुनर्जीवित किया है । आपके सहयोग की भी ज़रूरत है । 100 रुपये वार्षिक शुल्क मात्र। 

Sunday, October 7, 2012

लगभग अनामंत्रित - अशोक कुमार पांडेय


कवियों की बेतरह बढ़ती भीड़ में कविता एकदम से जैसे लुप्तप्राय हो गई है...हर जगह से, हर ओर से| मैं कोई आलोचक नहीं, न ही कवि हूँ| हाँ, कविताओं का समर्पित पाठक हूँ और एक तरह का दंभ करता हूँ अपने इस पाठक होने पर| अच्छी-बुरी सारी कवितायें पढ़ता हूँ| कविताओं की किताबें खरीद कर पढ़ता हूँ| पढ़ता हूँ कि अच्छे-बुरे का भेद जान सकूँ| इसी पढ़ने में कई अच्छे कवियों की अच्छी "कविताओं" से मुलाक़ात हो जाती है| खूब पढ़ने का प्लस प्वाइंट :-) .... अशोक कुमार पांडेय की "लगभग अनामंत्रित" ऐसी ही एक किताब है-एक अच्छे कवि की अच्छी कविताओं का संकलन|

करीब पचास कविताओं वाली ये किताब कहीं से भी कविताओं के भार से दबी नहीं मालूम पड़ती, उल्टा अपने लय-प्रवाह-शिल्प-बिम्ब के सहज प्रयोग से आश्वस्त सी करती है कि कविता का भविष्य उतना भी अंधकारमय नहीं है जितना कि आए दिन दर्शाया जा रहा विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में| विगत तीन-एक सालों से अशोक कुमार पांडेय की कवितायें पढ़ता आ रहा हूँ...नेट पर और तमाम पत्रिकाओं में| स्मृतियों के गलियारे में फिरता हूँ तो जिस कविता ने सबसे पहले मेरा ध्यान आकृष्ट किया था इस कवि की ओर, वो थी एक सैनिक की मौत| शीर्षक ने ही स्वाभाविक रूप से खींचा था मेरा ध्यान और पढ़ा तो जैसे कि स्तब्ध-सा रहा गया था| यूँ वैचारिक रूप से इस कविता की कुछ बातों से मैं सहमत नहीं था, न ही कोई सच्चा सैनिक होगा...लेकिन पूरी रचना ने अपने समस्त कविताई अवतार में मेरे अन्तर्मन को अजब-गज़ब ढंग से छुआ| किताब में ये कविता चौथे क्रमांक पर शामिल है| किताब में शामिल कुल अड़तालीस कविताओं में कई सारी कवितायें पसंद हैं मुझे और सबका जिक्र करना संभव नहीं, लेकिन कहाँ होगी जगन की अम्मा , चाय अब्दुल और मोबाइल और माँ की डिग्रियाँ  जो किताब में क्रमश:  तीसरे, छठे और ग्यारहवें क्रमांक पर शामिल हैं, का उल्लेख किए बगैर रहा न जायेगा|

जहाँ "कहाँ होगी जगन की अम्मा"  अपने अद्भुत शिल्प और छुपे आवेश में बाजार और मीडिया का  सलीके से पोशाक उतारती है और जिसे पढ़कर उदय प्रकाश जी कहते हैं "बहुत ही मार्मिक लेकिन अपने समय के यथार्थ की संभवत: सबसे प्रकट और सबसे भयावह विडंबना को सहज आख्यानात्मक रोचकता के साथ व्यक्त करती एक स्मरणीय कविता" ...वहीं दूसरी ओर  "चाय, अब्दुल और मोबाइल" मध्यमवर्गीय (महत्व)आकांक्षाओं पर लिखा गया एक सटीक मर्सिया है| दोनों ही कवितायें बड़ी देर तक गुमसुम कर जाती हैं पढ़ लेने के बाद| "माँ की डिग्रियाँ" तो उफ़्फ़...एक विचित्र-सी सनसनी छोड़ जाती है  हर मोड़ पर, हर ठहराव पर| इस कविता का शिल्प भी कुछ हटकर है, जहाँ कवि अपनी माँ के अफसाने को लेकर अपनी प्रेयसी से मुखातिब है| स्त्री-विमर्श नाम से जो कुछ भी चल रहा है साहित्यिक हलके में, उन तमाम "जो कुछों" में अशोक कुमार पाण्डेय की ये कविता शर्तिया रूप से कई नये आयाम लिये अलग-सी खड़ी दिखती है|

"लगभग अनामंत्रित" की कई कवितायें हैं जिक्र के काबिल| एक और कविता "मैं धरती को एक नाम देना चाहता हूँ" बिलकुल ही अलग-सी विषय को छूती है| जहाँ तक मेरी जानकारी है तो दावे से कह सकता हूँ कि ये विषय शायद अछूता ही है अब तक कविताओं की दुनिया में| पिता का अपनी बेटी से किया हुआ संवाद...एक पिता जिसे बेटे की  कोई चाह नहीं और जिसके पीछे सारा कुनबा पड़ा हुआ है कि वंश का क्या होगा...और कुनबे की तमाम उदासी से परे वो अपनी बेटी से कहता है "विश्वास करो मुझ पर खत्म नहीं होगा ये शजरा/वह तो शुरू होगा मेरे बाद/तुमसे"| इस कविता से मेरा खास लगाव इसलिए भी है कि खुद भुक्तभोगी हूँ और अगर मुझे कविता कहने का सऊर होता तो कुछ ऐसा ही कहता|

अशोक कुमार पाण्डेय  के पास अपना डिक्शन है एक खास, जो उन्हें अलग करता है हर सफे, हर वरक पर उभर रहे तथाकथित कवियों के मजमे से| अपने बिम्ब हैं उनके और उन बिंबों में एक सहजता है...जान-बूझ कर ओढ़ी हुई क्लिष्टता या भयावह आवरण नहीं है उनपर, जो हम जैसे कविता के पाठकों को आतंकित करे| उनके कई जुमले हठात चौंका जाते हैं अपनी  कल्पनाशीलता से और शब्दों के चुनाव से|
चंद जुमलों की बानगी ....
-बुरे नहीं वे दिन भी/जब दोस्तों की चाय में/दूध की जगह मिलानी होती थी मजबूरियाँ (सबसे बुरे दिन)
-अजीब खेल है/कि वजीरों की दोस्ती/प्यादों की लाशों पर पनपती है (एक सैनिक की मौत)
-पहले कविता पाठ में उत्तेजित कवि-सा बतियाता अब्दुल (चाय, अब्दुल और मोबाइल)
-जुलूस में होता हूँ/तो किसी पुराने दोस्त-सा/पीठ पर धौल जमा/निकल जाती है कविता (आजकल)
-उदास कांधों पर जनाजे की तरह ढ़ोते साँसें/ये गुजरात के मुसलमान हैं/या लोकतंत्र के प्रेत (गुजरात 2007)

दो-एक गिनी-चुनी कवितायें ऐसी भी हैं किताब में, जिन्हें संकलित करने से बचा जा सकता था, जो मेरे पाठक मन को थोड़ी कमजोर लगीं....विशेष कर "अंतिम इच्छा" और "तुम्हें प्रेम करते हुये अहर्निश"| "अंतिम इच्छा" को पढ़ते हुये लगता है जैसे कविता को कहना शुरू किया गया कुछ और सोच लिए और फिर इसे कई दिनों के अंतराल के बाद पूरा किया गया| विचार का तारतम्य टूटता दिखता है...सोच का प्रवाह  जैसे बस औपचारिक सा है| वहीं "तुम्हें प्रेम करते हुये अहर्निश" में ऐसी झलक मिलती है कि कवि को 'अहर्निश' शब्द-भर से लगाव था जिसको लेकर बस एक कविता बुन दी गई|

किताब का कलेवर बहुत ही खूबसूरत बन पड़ा है| महेश वर्मा द्वारा आवरण-चित्र सफेद पृष्ठभूमि में किताब के नाम के साथ खूब फब रहा है| शिल्पायन प्रकाशन की किताबें अच्छी सज्जा और बाइंडिंग में निकलती हैं हमेशा| यूँ व्यक्तिगत रूप से, किताब खरीदने और फिर उसे बड़े जतन से सहेज कर रखने वाला मेरा 'मैं" सफेद आवरण वाली किताबों  से तनिक चिढ़ता है कि बार-बार पढ़ने और किताब पलटने के बाद ये हाथों के स्पर्श से मैली पड़ जाती हैं| किताब में चंद प्रूफ की गलतियाँ खटकती हैं....विशेष कर एक कविता "तौलिया, अर्शिया, कानपुर" की पहली पंक्ति ही तौलिया के 'टंगी' होने की वजह से स्वाद बेमजा कर देती है और विगत एक दशक से अनशन पर बैठीं मणीपूर की  इरोम शर्मीला का नाम किताब में दो-दो बार गलती से इरमीला शिरोम छपा होना चुभता है आँखों को| उम्मीद है किताब के दूसरे संस्करण में इन्हें सुधार लिया जायेगा| किताब मँगवाने के लिए शिल्पायन के प्रकाशक श्री ललित जी से  उनके मोबाइल 9810101036 या दूरभाष 011-22821174  या फिर उनके ई-मेल shilpayanbooks@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है| कविता की एक अच्छी किताब हम कविताशिकों को सौपने के लिए आशोक कुमार पाण्डेय का बहुत-बहुत शुक्रिया और करोड़ों बधाईयाँ...और साथ ही उन्हें समस्त दुआएं कि उनका कविता-कर्म यूँ ही सजग, चौकस और लिप्त रहे सर्वदा...सर्वदा ! 

...और अंत में चलते-चलते इस किताब की मेरी सबसे पसंदीदा कविता| एक प्रेम-कविता... प्रेम की एक बिल्कुल अलग अनूठी सी कविताई प्रस्तुति, प्रेम को और-और शाश्वत...और-और विराट बनाती हुई| सुनिए:-

मत करना विश्वास 

मत करना विश्वास/अगर रात के मायावी अंधकार में 
उत्तेजना से थरथराते होठों से/किसी जादुई भाषा में कहूँ
सिर्फ तुम्हारा यूँ ही मैं 

मत करना विश्वास/अगर सफलता के श्रेष्ठतम पुरुस्कार को
फूलों की तरह सजाता हुआ तुम्हारे जूड़े में
उत्साह से लड़खड़ाती भाषा में कहूँ
सब तुम्हारा ही तो है

मत करना विश्वास/अगर लौटकर किसी लंबी यात्रा से
बेतहाशा चूमते हुये तुम्हें/एक परिचित-सी भाषा में कहूँ
सिर्फ तुम ही आती रही स्वप्न में हर रात

हालाँकि सच है  यह/ कि विश्वास ही तो था वह तिनका
जिसके सहारे पार किए हमने/दुख और अभावों के अनंत महासागर
लेकिन फिर भी पूछती रहना गाहे ब गाहे
किसका फोन था कि मुस्कुरा रहे थे इस कदर?
पलटती रहना यूँ ही कभी-कभार मेरी पासबुक
करती रहना दाल में नमक जितना अविश्वास 

हँसो मत/जरूरी है यह
विश्वास करो/तुम्हें खोना नहीं चाहता मैं...

Wednesday, September 19, 2012

पुस्तक परिचय ..." अर्पिता " /लेखक ...सीमा सिंघल ( सदा )



सीमा सिंघल ब्लॉगजगत की जानी मानी शक्सियत है 
जिन्हें ब्लॉगजगत में सदा के नाम से जाना जाता  है .........अभी कुछ महीनो पहले सदा जी का कविता- संग्रह " अर्पिता "को पढ़ा उसी से जुड़े कुछ विचार आपके सामने प्रस्तुत कर रहा हूँ !


मन को छू लें वो शब्‍द अच्‍छे लगते हैं, उन शब्‍दों के भाव जोड़ देते हैं अंजान होने के बाद भी एक दूसरे को सदा के लिए ......!!

कविता संग्रह 'अर्पिता' सामाजिक यथार्थ के मध्य से उठते हुए ज्वलंत सवालों का दस्तावेज लगा स्वानुभूति और भावपूर्ण अभियक्ति है "अर्पिता "............इस कविता संग्रह में सीमा सिंघल जी की छन्द मुक्त उदेश्यपूर्ण कवितायेँ है जो अपने सपनो को हकीकत में बदलना चाहती है !

सदा जी की की रचनाएँ अपने आप में अनूठी है जो सीधे दिल को छूती है हर व्यक्ति की संवेदनाओ को आकृति देती कविताये जीवंत लगती है |

सदा जी रचनाओं की एक और खासियत इनकी रचनाओ के भाव मन को झकझोर देते है  
सदा जी की रचनाये मात्र शब्द कौशल की बानगी नहीं है ........इनकी कविताये सहज होते हुए भी......पाठक के चिंतन को कुरेदता है|
.........................आज भी नारी अपने सपनो के प्रति स्वतंत्र क्यों नहीं है ?

जन्म देने वालो होती एक माँ 
फिर भी बेटे को कुल दीपक 
बेटी को पराई ही कहते 
सब लोग|

एक ऐसा दिल जो सुदूर आकाश गंगा के चमकते सितारों को दामन में भर लेना चाहता है , जो चाँद की शीतलता , फूलों की खुसबू और सितारों को दामन में भरना चाहता है ,तो हो जाती है कविता |

................सदा जी की कलम सचेत करती हुई चलती है -
अभिमान का दाना  तुम नहीं खाना तुम्हे भी अभिमान आ जायेगा 


ये सत्य अच्छे प्रयास से नया समाज निर्मित होता है सदा जी की कवितायेँ इस शास्वत सत्य को दोहराती है !
रिश्ते न बढ़ते है रिश्ते न घटते है वो तो उतना ही उभरते है जितना रंग हम उनमे अपनी मोहबत का भरते है   

अब आखिर में "अर्पिता" की  गजल - माँ ने छोड़ी न कलाई मेरी -आपको पढवाते है !


माँ ने छोड़ी न कलाई मेरी 

नमी आंसुओ की उभर आई आँखों में जब,
गिला कर गई फिर किसी की बेवफाई का ||

बहना इनका दिल के दर्द की गवाही देता ,
ऐतबार किया क्यों इसने इक हरजाई का ||

कितना भी रोये बेटी बिछड़ के बाबुल से,
दब जाती सिसकियाँ गूंजे स्वर शहनाई  का ||

ओट में घूँघट की दहलीज पर धरा जब पाँव,
चाक हुआ कलेजा आया जब मौका विदाई का ||

जार जार रोये बाबुल माँ ने छोड़ी न कलाई मेरी ,
बहते आंसुओ में चेहरा धुंधला दिखे माँ जाई का ||



पुस्तक  का नाम ------   अर्पिता  
रचनाकार  ------- --       सीमा सिंघल  
मूल्य  ------------  -       200/ 
आई एस बी एन --        978-81-910385-9-0
प्रकाशन - ----              हिन्द युग्म  


 मेरी और से सदा जी को कविता- संग्रह "अर्पिता" के लिए हार्दिक बधाई व ढेरो
शुभकामनाये .............!

@ संजय भास्कर 

Wednesday, August 15, 2012

सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्ता हमारा

 
पुस्तकायन ब्लॉग की ओर से आप सभी ब्लोगर मित्रों को स्वतंत्रता दिवस की अनेकानेक बधाईयाँ........!
 
@ संजय भास्कर

Sunday, June 24, 2012

पुस्तक परिचय / अनुभूति / अनुपमा त्रिपाठी


कुछ समय पूर्व  मुंबई प्रवास के दौरान अनुपमा त्रिपाठी जी से मिलने का मौका मिला ।उन्होने मुझे अपनी दो पुस्तकें  प्रेम सहित भेंट कीं । जिसमें से एक तो साझा काव्य संग्रह है –“ एक सांस मेरी “ जिसका  सम्पादन सुश्री  रश्मि प्रभा  और श्री  यशवंत माथुर ने किया है ...इस पुस्तक के बारे में  फिर कभी .....

आज मैं आपके समक्ष लायी हूँ अनुपमा जी  की पुस्तक “ अनुभूति ” का परिचय । अनुभूति से पहले थोड़ा सा परिचय अनुपमा जी का ... उनके ही शब्दों में --- ज़िंदगी में समय से वो सब मिला जिसकी हर स्त्री को तमन्ना रहती है.... मातापिता की दी हुयी शिक्षा , संस्कार  और अब मेरे पति द्वारा दिया जा रहा वो सुंदर , संरक्षित जीवन जिसमें वो एक स्तम्भ की तरह हमेशा साथ रहते हैं .... दो बेटों की माँ  हूँ और अपनी घर गृहस्थी में लीन .... माँ संस्कृत की ज्ञाता थीं उन्हीं की हिन्दी साहित्य की पुस्तकें पढ़ते पढ़ते हिन्दी साहित्य का बीज हृदय में रोपित हुआ  और प्रस्फुटित हो पल्लवित हो रहा है ... “

साहित्य के अतिरिक्त इनकी रुचि गीत संगीत और नृत्य  में भी है । इन्होने शास्त्रीय संगीत और सितार की शिक्षा ली है । श्रीमती सुंदरी शेषाद्रि से भारतनाट्यम सीखा । युव वाणी आल इंडिया रेडियो और जबलपुर आकाशवाणी से भी जुड़ी । 2010  में मलेशिया  के टेम्पल  ऑफ फाइन आर्ट्स  में हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत की शिक्षा भी दी .... आज भी नियमित शास्त्रीय संगीत के कार्यक्रम  देती रहती हैं .....
इनकी रचनाएँ पत्रिकाओं में भी स्थान पा चुकी हैं ....

अनुभूति पढ़ते हुये अनुभव हुआ कि अनुपमा जी जीवन के प्रति बहुत सकारात्मक दृष्टिकोण  रखती हैं  .....   अपनी बात में वो लिखती हैं ---

जाग गयी चेतना
अब मैं देख रही प्रभु लीला
प्रभु लीला क्या , जीवन लीला
जीवन है संघर्ष तभी तो
जीवन का ये महाभारत
युद्ध के रथ पर
मैं अर्जुन तुम सारथी मेरे
मार्ग दिखाना
मृगमरीचिका नहीं
मुझे है जल तक जाना ।

इस पुस्तक में उनकी कुल 38 कवितायें प्रकाशित हैं .... 
सभी कवितायें पढ़ कर एक सुखद एहसास हुआ कि  कहीं भी कवयित्रि के मन में नैराश्य  का भाव नहीं है .... हर रचना में जीवन  में आगे बढ़ने की ललक और परिस्थितियों  से संघर्ष करने का उत्साह दिखाई देता है 

मंद मंद था हवा का झोंका
हल्की सी थी तपिश रवि की
वही दिया था मन का मेरा
जलता जाता
जीवन ज्योति जलाती जाती
चलती जाती धुन में अपनी
गाती जाती बढ़ती जाती ।

कवयित्री  क्यों कि  संगीत से बेहद जुड़ी हुई हैं तो बहुत सी कविताओं में विभिन्न रागों का ज़िक्र भी आया है ... राग के नाम के साथ जिस समय के राग हैं उसी समय को भी परिलक्षित किया है ..... कहीं कहीं रचना में शब्द ही संगीत की झंकार सुनाते प्रतीत होते हैं ---

जंगल में मंगल हो कैसे
गीत सुरीला संग हो जैसे
धुन अपनी ही राग जो गाये
संग झाँझर झंकार सुनाये
सुन – सुन विहग भी बीन बजाए
घिर – घिर  बादल रस बरसाए
टिपिर – टिपिर सुर ताल मिलाये ।

ईश्वर के प्रति गहन आस्था इनकी  रचनाओं में देखने को मिलती है ---

प्रभु मूरत बिन /चैन न आवत /सोवत खोवत रैन गंवावत /
या ---
बंसी धुन मन मोह लयी /सुध – बुध मोरी बिसर गयी /
या 
प्रभु प्रदत्त / लालित्य से भरा ये रूप बंद कली में मन ईश स्वरूप ।

कहीं कहीं कवयित्रि आत्ममंथन करती हुई दर्शनिकता का बोध भी कराती है 

जीवन है तो चलना है जग चार दिनों का मेला है इक  रोज़ यहाँ ,इक रोज़ वहाँ हाँ ये ही रैन बसेरा है ।
सामाजिक सरोकारों को भी नहीं भूली हैं । प्रकृति प्रदत्त रचनाओं का भी समावेश है ---- आओ धरा  को स्वर्ग बनाएँ 

कविताओं की विशेषता है कि  पढ़ते पढ़ते जैसे मन खो जाता है और रचनाएँ आत्मसात सी होती जाती हैं .... कोई कोई रचनाएँ संगीत की सी तान छेड़ देती हैं लेकिन कुछ रचनाएँ ऐसी भी हैं जिनमे गेयता का अभाव है ... लेकिन मन के भावों को समक्ष रखने में पूर्णरूप से सक्षम है । पुस्तक का आवरण  पृष्ठ सुंदर है .... छपाई स्पष्ट है .... वर्तनी अशुद्धि भी कहीं कहीं दिखाई दी .... ब्लॉग पर लिखते हुये  ऐसी अशुद्धियाँ नज़रअंदाज़ कर दी जाती हैं  लेकिन पुस्तक में यह खटकती हैं .... प्रकाशक क्यों कि  हमारे ब्लॉगर साथी ही हैं  इस लिए उनसे विनम्र  अनुरोध है  इस ओर थोड़ी सतर्कता बरतें ।

कुल मिला कर यह पुस्तक पठनीय और सुखद अनुभूति देने वाली है .... कवयित्री को मेरी बधाई और शुभकामनायें ।


पुस्तक का नाम – अनुभूति

रचना कार --     अनुपमा त्रिपाठी

पुस्तक का मूल्य – 99 / मात्र

आई  एस बी एन – 978-81-923276-4-8

प्रकाशक -  ज्योतिपर्व प्रकाशन / 99, ज्ञान खंड -3 इंदिरापुरम गाजियाबाद – 201012 ।






Saturday, June 16, 2012

पुस्तक परिचय .... मेरे गीत / गीतकार -- सतीश सक्सेना



कुछ दिन पूर्व  सतीश सक्सेना जी के सौजन्य से मुझे उनकी पुस्तक  " मेरे गीत "  मिली  और मुझे उसे गहनता से पढ़ने का अवसर भी मिल गया । सतीश जी ब्लॉग जगत की ऐसी शख्सियत हैं जो परिचय की मोहताज नहीं है ।  आज  अधिकांश  रूप से जब छंदमुक्त रचनाएँ लिखी जा रही हैं उस समय उनके लिखे भावपूर्ण गीत मन को बहुत सुकून देते हैं । उनके गीतों और भावों से परिचय तो  उनके ब्लॉग  पर होता रहा है  लेकिन पुस्तक के रूप में  उनके गीतों को  पढ़ना  एक सुखद अनुभव रहा । पुस्तक पढ़ते हुये यह तो निश्चय ही  पता चल गया कि  सतीश जी एक बहुत भावुक और कोमल हृदय के इंसान हैं । 
बचपन में ही माँ  को खो देने पर भी जो छवि माँ  की मन में अंकित  की है  उसकी एक झलक उनकी माँ को समर्पित   उनके गीतों में मिलती है --
हम जी न सकेंगे दुनियाँ में 
माँ जन्में कोख  तुम्हारी से 
जो दूध  पिलाया  बचपन में 
यह शक्ति  उसी से पायी है 
जबसे तेरा आँचल छूटा, हम हँसना  अम्मा भूल गए 
हम अब भी आँसू भरे , तुझे  टकटकी  लगाए बैठे हैं । 

या फिर  माँ की याद में एक काल्पनिक चित्रण कर रहे हैं ---

सुबह सवेरे  बड़े जतन से 
वे मुझको नहलाती  होंगी 
नज़र न लग जाये, बेटे को 
काला तिलक लगाती होंगी 
चूड़ी, कंगन और सहेली , उनको कहाँ लुभाती होगी ? 
बड़ी बड़ी  आँखों की पलकें , मुझको ही सहलाती होंगी । 

ईश्वर के प्रति भी अगाध श्रद्धा भाव रखते हुये  सारी प्रकृति  के रचयिता को याद करते हुये कह उठते हैं --

कल - कल , छल- छल जलधार 
बहे , ऊंचे शैलों की चोटी से 
आकाश चूमते वृक्ष  लदे
हैं , रंग बिरंगे  फूलों से 
हर बार रंगों की चादर से , ढक  जाने वाला कौन ?
धरा को बार बार  रंगीन बना कर जाने वाला कौन ? 

इनके गीतों में पारिवारिक भावना बहुत प्रबलता से  महसूस होती है ..... 

कितना दर्द दिया अपनों को 
जिनसे हमने चलना सीखा 
कितनी चोट लगाई  उनको 
जिनसे हमने हँसना सीखा 
स्नेहिल आँखों के आँसू , कभी नहीं जग को दिख पाये 
इस होली पर , घर में आ कर , कुछ गुलाब के फूल खिला दें । 

वृद्ध  होते पिता के मनोभावों को जिस तरह गीत में उकेरा है उससे जहां मन भीगता है वहीं प्रेरणा भी मिलती है --

सारा जीवन कटा भागते 
तुमको नर्म बिछौना लाते 
नींद तुम्हारी न खुल जाये 
पंखा झलते थे सिरहाने 
आज तुम्हारे कटु वचनों से ,मन कुछ डांवाडोल हुआ है 
अब लगता तेरे बिन मुझको , चलने का अभ्यास चाहिए । 

सामाजिक सरोकारों को भी गीतकार नहीं भूला है ।  उनके गीत की ये  पंक्तियाँ  आपसी भेद भाव भुला  देने के लिए काफी हैं ---

चल उठा कलम  कुछ ऐसा लिख 
जिससे घर का सम्मान बढ़े 
कुछ कागज काले कर ऐसे 
जिससे आपस में प्यार बढ़े 
रहमत चाचा के कदमों में , बैठे पाएँ घनश्याम अगर ,
तो रक्त पिपासु दरिंदों को , नरसिंह  बहुत मिल जाएँगे । 

एक ओर  जहां धर्म के ठेकेदारों  पर  भी  गीतकार की कलम चली है  वहीं दलित वर्ग के शोषण को भी उजागर किया है ---

बीसवीं  सदी में पले  बढ़े 
ओ धर्म के ठेकेदारों  तुम 
मंदिर के द्वारे खड़े हुये 
उन मासूमों की बात सुनो 
बचपन से  इनको गाली दे , क्या बीज डालते हो भारी 
इन फूलों को अपमानित कर क्यों लोग मानते दीवाली ? 

******************************
वंचित रखा पीढ़ियों इन्हें 
बाज़ार हाट  दुकानों से 
सब्जी , फल , दूध , अन्न अथवा 
मीठा खरीद कर खाने से 
हर जगह सामने आता था , अभिमान सवर्णों का आगे 
मिथ्या अभिमानों को लेकर  क्यों लोग मनाते दिवाली । 

सतीश जी के सभी गीत भावप्रबल हैं । इस पुस्तक में यूं तो सभी गीत  सुंदर और कोमल भावों के एहसास को सँजोये हुये हैं  लेकिन सबसे ज्यादा मुझे जिस गीत ने  प्रभावित  किया है वह है --- पिता का खत पुत्री को 
इस गीत में गीतकार हर उस पिता की भावनाओं को कह रहा है जिसकी बेटी ब्याह कर पराए घर को अपनाने जा रही है .... उस पराए घर को अपना बनाने की सीख देता यह गीत बहुत सुंदर बन पड़ा है -

मूल मंत्र सिखलाता हूँ मैं 
याद  लाडली रखना इसको 
यदि तुमको कुछ पाना हो 
देना पहले सीखो पुत्री 
कर आदर सम्मान बड़ों का , गरिमामयी तुम्ही होओगी 
पहल करोगी अगर नंदनी , घर की रानी तुम्ही रहोगी ।
*******************
कार्य  करो संकल्प उठा कर 
हो कल्याण सदा निज घर का 
स्व-अभिमानी बन कर रहना 
पर अभिमान न होने पाये 
दृढ़ विश्वास हृदय में ले कर कार्य करोगी, सफल रहोगी 
पहल करोगी अगर नंदनी .....

पुस्तक में एक - दो जगह कुछ वर्तनी अशुद्धि दिखाई दी  लेकिन सुंदर गीतों के आगे वो नगण्य  ही है .... जैसे --

पृष्ठ संख्या - 25 पर 
बरसों मन में गुस्सा बोयी 
ईर्ष्या ने, फैलाये बाज़ू 

गुस्सा शब्द पुल्लिंग होने के कारण बोयी के स्थान पर बोया  आना चाहिए था ।

कुछ टंकण अशुद्धियाँ भी दिखीं  जैसे 
पृष्ठ संख्या -56 
दवे हुये जो बरसों से थे .....
दवे  की जगह दबे  होना चाहिए था ...
इसी पृष्ठ पर --
द्रष्टिभर के स्थान पर  दृष्टिभर  सही रहता ।

एक संशोधन की आवश्यकता थी ,  शायद इस ओर किसी का ध्यान नहीं गया --- पृष्ठ संख्या 49 पर जो गीत है वही पृष्ठ संख्या 59 पर भी है । बस गीत का शीर्षक अलग अलग है ---ज़ख़्मों को सहलाना क्या  / कैसे समझाऊँ मैं तुमको पीड़ा का सुख क्या होता है । 

पुस्तक की बाह्य साज सज्जा  सुंदर है ,छपाई स्पष्ट  है .... हर पृष्ठ पर सौंदर्य  बढ़ाने हेतु  किनारा ( बौर्डर ) बनाया गया है । उसे देख मुझे ऐसा लगा कि जैसे गीतों ने अपनी उन्मुक्तता  खो दी है ..... भावनाओं को जैसे बांधने का प्रयास किया गया हो ...यह मेरी अपनी सोच है ...इससे गीतों के रस और भावनाओं पर कोई असर  नहीं पड़ने वाला .... 

कुल मिला कर  आज  के परिपेक्ष्य  में "  मेरे गीत " पुस्तक नि: संदेह पाठक को भावनात्मक रूप से बांधने मे सक्षम है ।इस पुस्तक के गीत कार  सतीश सक्सेना जी को  मेरी हार्दिक शुभकामनायें । 

पुस्तक  का नाम ----    मेरे गीत 
गीतकार -----             सतीश सक्सेना 
मूल्य  -----------          199 / 
आई एस बी एन --        978-93-82009-14-6
प्रकाशन -                ज्योतिपर्व  प्रकाशन 






Thursday, January 26, 2012

गणतंत्र दिवस की हार्दिक बधाइयाँ !!





पुस्‍तकायन.....ब्लाग की ओर से  ब्लाग जगत के सभी साथियों को 
गणतंत्र दिवस  की हार्दिक बधाइयाँ  !!



जय हिंद...वंदे मातरम्।

Monday, January 2, 2012



व्योमकेश दरवेश


मनोज कुमार
इन दिनों एक पुस्तक पढ़ी। डॉ. विश्वनाथ त्रिपाठी रचित “व्योमकेश दरवेश”। लेखक इस पुस्तक को आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी का पुण्य स्मरण कहते हैं। आकाशधर्मा गुरु आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी जी अपने जीवन-काल में ही मिथक-पुरुष बन गए थे। हिंदी में ‘आकाशधर्मा’ और ‘मिथक’ इन दोनों शब्दों के प्रयोग का प्रवर्तन उन्होंने ही किया था।

vyomkesh darveshहजारीप्रसाद द्विवेदी हिंदी साहित्य के प्रख्यात रचनाकार और आलोचक हैं। हिंदी जगत में उनकी प्रतिष्ठा अन्वेषक, इतिहासकार, आलोचक, निबंधकार और उपन्यासकार के रूप में है। उनका रचित साहित्य विविध एवं विपुल है। उनका जीवन-संघर्ष विस्थापित होते रहने का संघर्ष है। इसीलिए उनकी जीवन-यात्रा के बारे में लिखना जितना ज़रूरी है उससे ज़्यादा मुश्किल। अपने विषय में लिखित सामग्री को संभालकर या सुरक्षित रखना द्विवेदी जी के स्वभाव में नहीं था, हां पत्र लिखने और पत्रों का जवाब देने में वे बड़ी तत्परता दिखाते थे। इसलिए उनके जीवन की, खासकर आरंभिक काल की, बहुत सी जानकारी लेखक ने उनके पत्रों से संकलित करके बड़े ही करीने से हमारे सामने रखा है। पुस्तक का आरंभ द्विवेदी जी के बचपन और उनके जन्म स्थान बलिया ज़िले के बसरिकापुर कस्बे के आरत दुबे का छपरा से हुआ है जहां अभी तक द्विवेदी परिवार का पुश्तैनी मकान है। लेखक बताते हैं कि थोड़ी दूर पर पंडित जी ने नया मकान बनवाना शुरु किया था। नींव रखी गई। मकान नहीं बन पाया। कुछ ऐसा हुआ कि नींव की जगह पर पाकड़ का एक पेड़ उग आया। वह पेड़ अब विशाल हो गया है।

इस पुस्तक को पं. हजारीप्रसाद द्विवेदी जी की जीवनी भी कह सकते हैं, पर इसका रूप संस्मरण की तरह का है। लेखक ख़ुद कहते हैं कि यह तटस्थतापूर्वक नहीं लिखी गई है। इसका कारण यह है कि इस पुस्तक के लेखक को दो दशकों से भी अधिक समय तक उनका सान्निध्य और शिष्यत्व प्राप्त होने का सौभाग्य मिला है। इतना ही नहीं आचार्य द्विवेदी के पूरे परिवार की छाया लेखक के ऊपर रही, न सिर्फ़ पंडित जी और माता जी बल्कि उनकी संतानों की भी। इसलिए यह पुस्तक संस्मरणात्मक हो गई है। इस पुस्तक में संस्मरण, आत्मकथा, रिपोर्ताज, रेखाचित्र, डायरी और समीक्षा विधा का आस्वाद एक साथ लिया जा सकता है।

लेखक ने प्रयास किया है कि प्रसंगों और स्थितियों को यथासंभव प्रामाणिक स्रोतों से ही ग्रहण करें। 19 अगस्त 1907 को जन्मे द्विवेदी जी ने आरंभिक शिक्षा के बाद हिन्दू विश्वविद्यालय वाराणसी से ज्योतिष और संस्कृत की उच्च शिक्षा प्राप्त की। 1929 ई में संस्कृत साहित्य में शास्त्री और 1930 में ज्योतिष विषय लेकर शास्त्राचार्य की उपाधि पाई। 8 नवम्बर, 1930 को हिंदी शिक्षक के रूप में शांतिनिकेतन में कार्यारम्भ किया। वहीं 1930 से 1950 तक हिन्दी-भवन में अध्यक्ष का कार्य करते रहे। लेखक ने इस प्रसंग का वर्णन काफ़ी सजीव ढंग से किया है। वे बताते हैं कि द्विवेदी जी के चलते शान्तिनिकेतन हिन्दी साहित्यकारों, हिंदी प्रेमियों और विद्यार्थियों के लिए प्रमुख स्थल बन गया। काव्यतीर्थ तो वह गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर के चलते था ही। गुरुदेव के प्रभाव में द्विवेदी जी की भावभूमि का अभूतपूर्व विस्तार हुआ।

हालाकि पंडित जी शान्तिनिकेतन छोड़ना नहीं चाहते थे, लेकिन जब मातृ-संस्थान का निमन्त्रण मिला तो काशी चले आए। सन् 1950 में काशी हिंदू विश्वविद्यालय में हिंदी प्रोफेसर के पद पर द्विवेदी जी की नियुक्ति हुई। काशी की तत्कालीन साहित्य-मंडली, लेखक की मित्र-मंडली अनायास पुस्तक में आ गई है। लेखक बताते हैं कि तब बनारस में पं. महादेव शास्त्री, सम्पूर्णानंद, बेढ़ब बनारसी, विनोद शंकर व्यास, नज़ीर बनारसी, त्रिलोचन शास्त्री, विष्णुचन्द्र शर्मा, चन्द्रबली सिंह, शम्भुनाथ सिंह, नामवर सिंह, शिव प्रसाद सिंह, केदार नाथ सिंह, शमशेर बहादुर सिंह, रामदरश मिश्र आदि थे। इन सब से जुड़े संस्मरणों की भरमार है इस पुस्तक में जिसे लेखक ने रोचक वृत्तांत में बदल दिया है।

1960 के जून में काशी विश्वविद्यालय से द्विवेदी जी की सेवा समाप्त कर दी गई। 1960-67 के दौरान, पंजाब विश्वविद्यालय चण्डीगढ़ में हिंदी प्रोफेसर और विभागाध्यक्ष रहे। पंडित जी के आने से पंजाब-हरियाणा की राजधानी चण्डीगढ़ हिंदी साहित्य का नवीनतम तीर्थ बन गया। 1967 के बाद पुनः काशी हिंदू विश्वविद्यालय में, जहाँ कुछ समय तक रैक्टर के पद भी रहे। जीवन के अतिंम दिनों में ‘उत्तरप्रदेश हिंदी संस्थान’ के उपाध्यक्ष रहे। इन सब से जुड़ी हर छोटी-बड़ी बातों का लेखक ने बड़े विस्तार से इस पुस्तक में वर्णन किया है।

हालाकि इस किताब के बारे में अपने गुरु का पुण्य स्मरण करते हुए लेखक कहते हैं, “पंडित जी कहा करते थे, एक साथ तैयारी कर के, योजना बनाकर कोई काम करे तो लेखन में सघनता आती है, दुहराव-तिहराव पुनरुक्तियां नहीं होतीं और काम जल्दी पूरा भी हो जाता है।” पर लेखक ने खुद स्वीकार किया है, “मुझसे यह हो नहीं पाता, हो नहीं पाया।” इस पुस्तक में एक ही कथन को कई जगहों पर दुहराया गया है, जो इसकी रोचकता का ह्रास करता है। सघनता में भी कमी है, जिससे किताब पाठक को पकड़ कर नहीं पढ़वाती, बल्कि रुक-रुक कर पढ़ना पड़ता है। पुनरुक्ति दोष, तथ्यों की भरमार, लेखक का अपना आत्म-प्रकाश, निस्संगता का अभाव, ठस्स गद्य, तरलता का अभाव इसे रोचक बनने नहीं देता, जो पाठकों को अंत तक बांधे रखे। लेकिन बावज़ूद इसके कि हजारीप्रसाद द्विवेदी जैसे व्यक्तित्व पर लेखनी उठाना साहस का काम है और उस साहस को लेखक ने दिखलाया है, साथ ही उनके लेखन में ईमानदारी का पूरा प्रभाव देखा जा सकता है। इसलिए इसे संस्मरण या जीवनी न कह कर संस्मरणात्मक जीवनी के मिले-जुले रूप में याद किया जाएगा और शोधार्थी के लिए यह पुस्तक काफ़ी उपयोगी सिद्ध होगी। गम्भीर आलोचक माने जाने वाले विश्वनाथ त्रिपाठी ने इस पुस्तक में न सिर्फ़ अपनी विलक्षण स्मृति का परिचय दिया है बल्कि द्विवेदी जी से जुड़े आख्यान को एक सरल कथानक के रूप में पेश किया है।
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पुस्तक का नाम : व्योमकेश दरवेश
लेखक : डॉ. विश्वनाथ त्रिपाठी
प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रा.लि.नई दिल्ली- 110002
मूल्य: 600 रु.
पृष्ठ : 464

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