Monday, February 18, 2013

फ्रीक्स की कथाओं का संकलन‍ - कहानी संग्रह गंधर्वगाथा

यूँ तो यह समीक्षा शीघ्र ही किसी पत्रिका में आने वाली है। किस पत्रिका में यह मुझसे ना पूछें, क्योंकि जिसने यह समीक्षा लिखी उस पर इतना अधिकार था कि उसकी बिना अनुमति यहाँ यह समीक्षा बाँट ले रहा हूँ अब उसकी बिना अनुमति यह भी बताना तो ठीक नही है ना ..... ?

समीक्षा को यहाँ बाँटने का लोभ संवरण इस लिये नही कर पाया क्योंकि एक तो यह कहानी संग्रह मेरा प्रिय कहानी संग्रह है दूसरी बात ये कि इस कहानी संग्रह की लेखिका मेरी प्रिय लेखिका हैं और तीसरी बात ये कि समीक्षा को लिखने वाली मेरी अनुजा भी मुझे बहुत प्रिय है। तो लीजिये बिना और ज्यादा बात किये पढ़िये मनीषा कुलश्रेष्ठ के कहानी संग्रह गंधर्व गाथा पर लिखी गई कंचन सिंह चौहान की समीक्षा।


गंधर्वगाथा में जो चीज सबसे पहले मोहित करती है, वो है उस संग्रह की भूमिका में लिखा गया फ्रीक शब्द और फिर उस फ्रीक शब्द की परिभाषा मनीषा कुलश्रेष्ठ के शब्दों में। और फिर कहानी दर कहानी मिलते जाना एक के बाद दूसरे फ्रीक से। 

स्वांग का गफूरिया,ऐसा नादान फ्रीक जिसने जाने कब राष्ट्रपति पुरस्कार पाया था और अब तक सोचता है कि बहुरूपिया एक कला परंपरा है। कालबेलिया नर्तको के समूह उसके सामने उसे धता बता रहे होते हैं और वो फिर भी सरकार से उस भत्ते की उम्मीद करता है, जो कलाकारों के इलाज के लिये सरकार द्वारा दिया जाता है। वो राज्य सरकार जिसमें गफूरिया जैसे तीन हजार कलाकार होंगे वे मजबूर हैं इस बात से कि वे मंत्री कलक्टर के आराम का खर्च उठायें या इन जैसे कलाकारों को मरने से बचायें जिनके बच्चों तक ने उनकी कला को बेकार समझ कर छोड़ दिया है़। उदार कलेक्टर बस इतना कर सकता है कि अपने मातहत करीब सौ लोगों से १० १० रुपये चंदा करवा सकता है उसके इलाज के लिये। और वहीं गफूरिया की बीवी जिंदगी भर की कमाई पूरे चौदह सौ छप्पन रुपये' दे देती है उसके इलाज के लिये। पाठक सिहर उठता है कहानी का अंत आते आते जब गफूरिया कहता है कि "कैंसर का इलाज इतने कम पैसे में होता है क्या ?"

मरती कलाएं जिन्हे बचाने को फ्रीक हुए जा रहे हैं गफूरिया से लोग ऐसे व्यक्ति की मार्मिक कथा खतम होते होते मन का कोना आर्द्र कर जाती है।
 
आगे बढ़ें तो एक कहानी में मिलती है फ्रीक कालिंदी। जो रेड लाइट एरिया में रह कर भी कभी किसी कश्टमर को नही बुलाती। वयः संधि पर पहुँचती अपनी संतान को जो खुद नही बता पाती कि वो एक न्यूड मॉडल है और ये होना उसके लिये वैश्या होने  ज्यादा सम्मानजनक है खुद में, तो होने देती है, वो जो होता जाता है, अंजान बन कर संतना को जानने देती है कि उसका पेशा क्या है आखिर और अंत में बीमार कालिंदी के पास आयी उसी संतान के साथ की वार्ता सुनकर लगता है कि उनकी जिंदगी के बीच कुछ भी हुआ, लेकिन नाल अब भी जुड़ी है दोनो की।


कहानी 'मेरा ईश्वर यानी......' जिस कहानी का सार है 'ला मोरा डोमिना सेंजा रिगोले (लव रूल्स विदाउट रूल्स)'इस कहानी को पढ़ना, किसी पूरी पूरी लड़की की डायरी पढ़ना था, ताजा ताजा टूटे दिल के साथ। शायद आपने संग्रह की केवल इसी कहानी में 'फ्रीक' शब्द का प्रयोग किया है, वो नायिका फ्रीक है," क्योंकि वो बिंदास नाचती है, क्योंकि वो आह से खेलती है, क्यों कि वो कसे और फैशनेबल कपड़े पहनती है, क्योंकि मेकअप करती है, क्यों कि अकेले दुनिया घूमती है।" लेकिन पाठक को लगता है कि शायद पूरे कहानी संग्रह में यही पात्र 'फ्रीक' नही है। एक आम लड़की, जो सब लड़कियों में शामिल है, जिसमें सब लड़कयाँ शामिल हैं। ऐसा लगता है कि सभी लड़कियाँ ऐसी ही हो जाती हैं, जब उन्हे, सफेद से लाल और फिर अचानक पीले गुलाब दे कर कहा जाये " दोस्त तो हम हैं ही ना"
एक ऐसी कहानी जो आरंभ से अंत तक टुकड़ों टुकड़ों में कोटेबल है

और इससे आगे जब बढ़ते हैं तो मेस्मिराइज़्ड शब्द का मानवीकरण होता है। एक नही दो नही तीन फ्रीक अद्भुत कथानक अद्भुत कथा गुंफन अद्भुत शब्द शैली एक अलग सी कहानी जिसकी जीवंतता और श्लीलता बनाये रखना बहुत कठिन काम था। लेकिन अंत तक बना रह गया। मनीषा कुलश्रेष्ठ यहाँ अपने चिरपरिचित कौशल को एक बार फिर दिखा जाती हैं। जहाँ बोल्ड से बोल्ड विषय अपना सौंदर्य खोये बिना रोमानियत और मादकता बनाये रखता है और कहीं से कहानी को वल्गर भी नही होने देता।

अगली कहानी परजीवी के नायक को समझना बहुत मुश्किल है तुम एक खूबसूरत लड़की हो जैसा जुमला वो एक ऐसी लड़की के लिये वो जाने क्यों प्रयोग करता है जो उसकी निगाह में ना तो खूबसूरत है ना ही लड़की। एक खूबसूरत पत्नी की नफासत नज़ाकत से तंग वो मुँहासों भरे चेहरे और पीले दाँत वाली लड़की को इसलिये चुनता है कि शायद वो उसके नाज ओ नखरे उठाने से बच जाये। लेकिन वहाँ दुश्वारियाँ अलग हैं। नारी मन का चित्रण करती अनेकानेक कहानियों के मध्य ये कहानी पुरुष विमर्श की श्रेणी में डाली जा सकती है। वो पुरुष जो नही चाहता कि हर बार उसके नाम का सिंदूर पहन उसे बेड़ियाँ पहना दी जायें। सामान्यतः नारी से अलग बिलकुल उसी तरह की गुहार है इस पुरुष की और कौन जाने कि हर पुरुष की हो।

खरपतवार की नायिका भी तो फ्रीक ही है। जो खुद को जाने क्यूँ खरपतवार समझती है। २३ साल तक खुद को जाने कैसे इस अहसास के साथ पाल भी लेती है। एक कोमल सी नायिका जिसका शरीर सुख का चरम बर्दाश्त भी नही कर पाता और सुख की असीम भूख भी है उसमें। चरम के उन क्षणों के बाद ज़ार ज़ार रोती आँखें और मुस्कुराते होंठ ऐसा बिंब बनाते हैं कि पाठक खुद भी कहीं भीगा और कहीं हरा हो जाता है। एक और खरपतवार को दुनिया में लगने से बचाने के बाद गुड़ाई की गई जमीन पर ज़िद से हल चलवाती वो फ्रीक अजीब तरह से वीडिंग करती है समाज के तथाकथित उपवन की।

बिगड़ैल बच्चे एक मिथक तोड़ने वाली कहानी है। जिसमें फकिंग जैसे शब्द सामान्य रूप से बोलते युवा सहयात्री की चिंता किये बगैड़ अंग्रेजी गानों पर थिरकते गिटार बजाते आधी खुली पीठ वाला छोटा सा नाभीदर्शना टॉप पहने और उस नाभि में चाँदी की बाली लटकाये खुद में मस्त दुनिया से बेफिकर युवा अचानक रेल में बैठे बहुत से सभ्य और सुसंस्कृत लोगों से अधिक संवेदनशील और स्वार्थहीन दिखने लगते हैं। रशिया के लिंग्विस्टिक विभाग में यदि इस कहानी को पाठ्यक्रम के रूप में शामिल किया गया तो ये उसके योग्य भी थी।

कुरजा एक अलग पृष्ठभूमि की कहानी है, लेकिन उन जगहों पर रहने वाले लोगों के लिये कोई आश्चर्य नही है ऐसी जाने कितनी कुरजाएं मिल जाती हैं सिर्फ राजस्थान में नही झारखण्ड, बिहार, दक्षिण भारत और उत्तर भारत में बस उनके नाम कहीं डाकण होते हैं और कहीं डाईन।

एक स्त्री हो कर फाँस कहानी को पढ़ना जब इतना कठिन था तो एक स्त्री का इसे लिखना कितना कठिन रहा होगा ये सोचती हूँ मैं। अजीब सी हिक़ारत अजीब सी वितृष्णा होती है उस बूढ़े मर्द पर जो उन गालियों को जिंदा करता है, जिन पर लोग गोलियाँ चला देते हैं। अंतिमा की जाँघों के बीच की जुगुप्सा पूर्ण छूअन उसके वक्षों का मसला जाना बार बार कहानी की किताब को बंद करा देता है, फिर से बड़ी हिम्मत कर के खोली जाती है किताब लेकिन कपाल क्रिया के साथ पड़ा प्रहार अंतिमा के साथ साथ पढ़ने वाले की फाँस को खींच कर निकाल देता है और वो लंबी साँस ले कर चैन पाता है।

मुझे नही पता कि स्यामीज़ पढ़ना किसी पुरुष पाठक को क्या अनुभूति देगा,परंतु एक स्त्री लेखिका ज़रूर ही उस मनःस्थिति से कई बार गुज़री होगी,जो मानसी और रूपसी के बीच की वार्ता बना है। असल में इस प्रकार की स्त्रियाँ शायद किसी एक के बिना कभी खुद को अधूरा महसूस करने लगती हैं और कभी किसी भी एक को ले कर कॉंप्लेक्स में भी आ जाती हैं। असल में वो स्त्री ब्यूटी विथ माइंड है। कभी उसे लगता है कि वो अपनी विद्वता के बिना अधूरी है और कभी अपने रूप के बिना। दोनो में किसी एक को चुनना हो तो वो असमंजस में पड़ जाती है और उधर ये भी होता है कि कभी उसे लगता है कि उसके बौद्धिक पक्ष के कारण उसके अंदर की खालिस नारी खतरे में आ गई है और कभी ये कि उसके अंदर की सामान्य नारी उसके असल बौद्धिक पक्ष को दबा दे रही है। इस कहानी को पढ़ने के बाद आप मनीषा कुलश्रेष्ठ की कथाकारी की वैविध्यता पर आश्चर्य किये बिना शायद ही रह पायें।

अंतिम कहानी गंधर्वगाथा एक सामान्य और कई बार लिखे गये प्लॉट की कथा है। उसकी भाषा ही उसके सौंदर्य और रोचकता को बना रख सकी है, अन्यथा कहानी स्पष्ट है। हाँ ये कह सकते हैं कि प्रेम के विषय की तरह इस प्लॉट पर हर लेखक एक बार क़लम चलाना ही चाहेगा। क्योंकि सब के साथ अक्सर कुछ अनकहा रह ही जाता और जो अनकहा रह जाये उसे मन और लेखनी बार बार कहना चाहते हैं।

इस प्रकार मनीषा कुलश्रेष्ठ के कहानी संग्रह गंधर्वगाथा को पढ़ना एक अद्भुत अहसास से गुजरना होता है,जो कुछ देर तक मुँह में मीठे स्वाद सा घुला रह जाता है।


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